परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्र दक्ष जब प्रजापतियों के राजा बने, तो उन्होंने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। इसमें सम्मिलित होने के लिए तीनों लोकों के अतिथियों को न्योता भेजा गया, सिर्फ भगवान भोले शंकर को छोड़कर। भगवान शिव राजा दक्ष के जमाई थे। लेकिन दक्ष को भोलेनाथ का अलबेला और मस्तमौला स्वभाव तनिक भी नहीं भाता था। जब शिव की अर्धांगिनी और दक्ष की पुत्री सती को पता चला कि उनके पिता ने यज्ञ का आयोजन किया है, तो उन्होंने भी उसमें सम्मिलित होने की इच्छा जताई। लेकिन भोलेनाथ बिना आमंत्रण के यज्ञ में जाने को तैयार नहीं हुए। इसलिए सती को वहां अकेले ही जाना पड़ा। वह जैसे ही सभागृह में पहुंचीं, उन्हें शिव निंदा सुनाई दी। सती को देखकर भी उनके पिता नहीं रुके, वह शिव की बुराई करते रहे। सती ने अपने पिता को समझाने का प्रयास किया, लेकिन राजा दक्ष ने उनकी एक न सुनी। सती अपना और अपने पति का अपमान सह नहीं पाईं और वह यज्ञ स्थल पर बने अग्निकुंड में कूद गईं।
सती के अग्निकुंड में कूदने का दुखद समाचार लेकर नंदी कैलाश पर्वत पहुंचे। भगवान शिव सती को बचाने के लिए यज्ञस्थल पर गए, लेकिन तब तक सब खत्म हो चुका था। कैलाशपति ने क्रोधित होकर सती का शरीर उठा लिया और तांडव करने लगे। जिस दिन शिव ने तांडव किया था, वह फाल्गुन महीने के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी (चौदहवीं) तिथि थी। महापुराण के अनुसार वही खास तिथि महाशिवरात्रि हुई। शिवरात्रि का अर्थ शिव की रात। शास्त्र के अनुसार, हर सोमवार का दिन शिव की पूजा के लिए उपयुक्त है। हर महीने के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि शिवरात्रि होती है। फाल्गुन में महीने में वही खास तिथि महाशिवरात्रि हो जाती है।
मान्यता है कि इसी दिन बह्माण्ड की रचना हुई थी। सती के शोक में भगवान शिव गहन समाधि में चले गए, ध्यानमग्न हो गए। उनके ध्यान को कोई तोड़ ही नहीं पाता। भगवान विष्णु और ब्रह्मा भी सारे जतन करके हार गए। सृष्टि का संचालन भी बाधित होने लगा। देवतागण की समझ में नहीं आ रहा था कि भगवान शिव का ध्यान तोड़ने के लिए क्या जाए?दूसरी तरफ हिमालय की बेटी के रूप में सती का पुनर्जन्म होता है। उनका नाम रखा गया- पार्वती। पार्वती शिव को पाने के लिए कठिन तपस्या करती हैं। पहले तो शिव ने पार्वती को तपस्या करने से रोक दिया, लेकिन अन्य देवताओं के सहारे पार्वती शिव का मन जीत लेती हैं। फिर एक विशाल समारोह में शिव-पार्वती का विवाह हुआ। उस दिन भी फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि थी। शिवपुराण के अनुसार, इसी रात शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। इसका मतलब हुआ, शिव और शक्ति या फिर पुरुष और आदिशक्ति यानी प्रकृति का मिलन।
महाशिवरात्रि के दिन देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में शिवभक्तों का जमावड़ा लगता है। इनके नाम हैं- सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, औंकारेश्वर, केदारनाथ, भीमशंकर, विश्वेश्वर, त्र्यंबकेश्वर, वैद्यनाथ, नागेश्वर, रामेश्वर और घिष्णेश्वर। हिंदू शैव संप्रदाय वालों के लिए यह सबसे बड़ा धार्मिक अनुष्ठान है। दुनिया के सभी शिवालयों में इस दिन अंधकार और अज्ञानता को दूर करने का संकल्प लिया जाता है। दिनभर उपवास रखकर शिवलिंग को दूध, दही, घी, शहद और गंगाजल से स्नान कराया जाता है।
मध्यकालीन इतिहास से पता चलता है कि संसार की मंगल कामना के लिए लड़कियां, विवाहित, विधवाएं सभी स्त्रियां शिवरात्रि का व्रत करती हैं। इसका मतलब यह नहीं कि शिवरात्रि सिर्फ स्त्रियों के लिए है। शिवरात्रि का पहला अनुष्ठान एक पुरुष ने ही किया था। वह कहानी भी स्वयं शिव ने बताई है। शिव पुराण के अनुसार, पुराने जमाने में काशी यानी आज की वाराणसी में एक निर्दयी शिकारी रहता था। उसे धर्म-कर्म से कुछ लेना-देना नहीं था। उसका रोज का काम ही पशुहत्या थी।
एक दिन वह शिकार करने के लिए जंगल गया और रास्ता भटक गया। शाम घिर आई। जंगल के जीव-जन्तुओं के डर से वह एक पेड़ पर चढ़ गया। दिन-भर कुछ खाने को नहीं मिला था। वह डाली पर बैठे-बैठे पत्ते तोड़कर नीचे फेंकने लगा। वह बेल का पेड़ था। पेड़ के नीचे एक शिवलिंग था। शिकारी को इस बारे में कुछ पता नहीं था। वह दिन था, शिव चतुर्दशी, यानी महाशिवरात्रि। और शिकारी भूखा था। उसके फेंके हुए पत्ते बार-बार शिवलिंग पर चढ़ रहे थे। दूसरे दिन शिकारी घर लौटकर देखता है कि उसके घर एक अतिथि आया हुआ है। वह शिकारी स्वयं न खाकर अपने हिस्से का भोजन अतिथि को दे देता है। इस तरह मंत्रोच्चार न जानते हुए भी उस शिकारी ने सही तरीके से शिवरात्रि व्रत का पालन कर लिया। बाद में जब शिकारी की मृत्यु हुई। अब शिवदूत और यमदूत के बीच विवाद हो गया। शिवदूत उसे अपने साथ ले जाना चाहते थे, तो यमदूत अपने साथ। कोई छोड़ने को तैयार नहीं। अंत में विवाद निपटाने यमराज पहुंचते हैं। शिवदूतों ने जब कारण बताया, तो यमराज ने उनकी बात मान ली। कहा जाता है कि अगर कोई विधि-विधान से शिव चतुर्दशी का पालन करता है तो उसे यमलोक नहीं जाना पड़ता। उसे स्वर्गवास या मोक्ष मिलता है। इसीलिए हजारों वर्षों से शिव चतुर्दशी और शिवरात्रि मनाए जाने की परंपरा चली आ रही है।
भगवान शिव एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनकी पूजा मूर्ति और लिंग दोनों के रूप में की जाती है। शिवलिंग को भगवान शिव का प्रतीक माना गया है। मूर्ति के रूप में भगवान शिव के साकार रूप को पूजा जाता है तथा शिवलिंग के रूप में भगवान शिव के निराकार रूप को पुजा जाता है। शिवलिंग को भगवान शिव के आदि और अनादि स्वरूप से संबंधित माना गया है। शिवलिंग की उत्पत्ति का वर्णन शिवपुराण में मिलता है। भगवान शिव के शिवलिंग के रूप में प्रकट होने के पीछे हिंदू धर्म शास्त्रों में कई कथाएं प्रचलित हैं। लिंग महापुराण ग्रंथ के अनुसार, एक बार सृष्टि के रचयिता माने जाने वाले ब्रह्मा जी और सृष्टि सृजन अर्थात सृष्टि के पालनहार विष्णु जी के बीच श्रेष्ठता को लेकर बहस छिड़ गई। दोनों देव स्वयं को श्रेष्ठ बताने की होड़ करने लगे। जब दोनों देवों के बीच बहस बहुत बढ़ गई, तब ब्रह्माजी और विष्णु जी के बीच एक अग्नि की ज्वाला से जलता हुआ लिंग प्रकट हुआ। लिंग को देखकर दोनों देवों ने फैसला किया कि जो सबसे पहले इस लिंग के अंतिम छोर को ढूंढ लेगा वहीं श्रेष्ठ देव कहलायेगा। इसके बाद ब्रह्मा जी और विष्णु जी दोनों लिंग के छोर को ढूंढने में लग गए। लेकिन, बहुत कोशिशों के बावजूद भी दोनों देव लिंग का छोर नहीं खोज पाए और वापस लौटने लगे। तब ब्रह्माजी ने स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए केतकी नाम के फूल से सहायता मांगी और कहा कि विष्णु जी के समक्ष जाकर कहना कि ब्रह्मा जी ने अंतिम छोर ढूंढ लिया है, जिसका साक्षी मैं हूं। ब्रह्मा जी के कपट को देखते हुए उस लिंग से रुद्रदेव प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्माजी के झुठ के कारण श्राप दिया कि पृथ्वीलोक में आपकी पूजा नहीं होगी। इसके बाद रुद्रदेव ने केतकी पुष्प को पूजा में शामिल नहीं किए जाने का श्राप दिया।
ब्रह्मा जी और विष्णु जी ने हाथ जोड़कर रुद्रदेव से अपने स्वरूप में दर्शन देने की बात कही। तब रुद्रदेव ने कहा कि आप दोनों भी मेरे द्वारा ही उत्पन्न किए गए हैं। मैं अनादि काल से इसी स्वरूप में विद्यमान हूं और कुछ समय पश्चात मैं शिव के रूप में अवतार लूंगा। आप दोनों देव समान हैं तथा मेरे अवतार लेने के बाद भी हम तीनों समान होंगे। अतः हम तीनों में कोई श्रेष्ठ नहीं है। ब्रह्मा जी सृष्टि के रचयिता और विष्णु जी सृष्टि के पालनहार तथा भगवान शिव सृष्टि के संहारक हैं। शिवलिंग के रूप में भगवान शिव अनादि काल से है तथा आगे भी इसी स्वरूप में पूजनीय रहेंगे।